Monday, May 28, 2007

प्रगतिशीलता का कीड़ा और बेचारी लड़कियां

प्रगतिशीलता का दुपट्टा तह करके आलमारी में रख दूं तो इस सुंदरता वाले कीड़े ने मुझे भी कम नहीं काटा। जब तक दुपट्टा ओढ़े रहती, कीड़ा कुछ दूर-दूर से ही मंडराता था। दुपट्टा हटाते ही उसको खुला मैदान मिल जाता और वे पूरी ताक़त से वार करने लगता। फैजाबाद-आजमगढ़ के किसी गांव का कीड़ा तो था नहीं, इसलिए हरेक बात पर नहीं पिल पड़ता था। काटने की उसकी अपनी वजहें होती थीं, अपने जेनुइन कारण होते थे।हमारे बचपन में दादी कहा करती थीं- कथरी हो तो सुथरी, बिटिया हो तो उजरी। गांव में जिस कथरी पर लड़के-बच्‍चे मूतते थे, उस कथरी को लड़कियों के समानांतर रखा जाना मुझसे बर्दाश्‍त नहीं होता था। उजरी वाली थ्‍योरी भी बहुत बाद में जाकर समझ में आयी, जब मैंने पाया कि मुंबई में फिजिक्‍स की लेक्‍चरर मेरी मौसेरी बहन इस बात से बड़ी गौरवान्वित रहती हैं कि बेटा न सही, लेकिन बिटिया उन्‍होंने बिल्‍कुल दूध जैसी गोरी पैदा की है।फिलहाल, मेरे कीड़े को इतनी अकल आ गयी थी कि दूध जैसे गोरेपन के लिए अपनी जान न दे, लेकिन वो भी शायद इसलिए क्‍योंकि मैं डामर जैसी काली नहीं। उतनी काली होती, तो कीड़े की प्रतिक्रिया कुछ और होती। चमड़ी के रंग को तो उसने उतना बड़ा मुद्दा नहीं बनाया, लेकिन इस बात को लेकर पीडि़त करता रहा कि प्रभा और अफसर की तरह खूबसूरत तो मैं भी नहीं हूं। और इतना तो मैं गांठ बांधकर रख लूं कि सिमोन द बोवुआर और नओमी वुल्‍फ ने स्‍त्री और सौंदर्य के अंतर्संबंधों की जैसी व्‍याख्‍या की है, उसका अनुपालन करते हुए इस जन्‍म में तो मुझे पुरुष का प्रेम मिलने से रहा। ‘सौंदर्य एक मिथ है, स्‍त्री के लिए सामंती कारा है’ वगैरह घोंटने से क्‍या होता है। प्रगतिशील कविगण भी आपकी ओर आंख उठाकर नहीं देखते। सिमोन का क्‍या था, पेरिस में रहती थीं, प्रेम और रंगीनियों का शहर, यूरोप की सांस्‍कृतिक राजधानी, सार्त्र और कामू जैसा कंपैनियन, जो चाहें, लिखें। सुल्‍तानपुर में पैदा हुई होतीं, तो इस तरह की बात न करतीं और न हम सीधी-सादी लड़कियों को यूं बरगलाती हीं।जिस पूरे दौर में कीड़ा अपनी कटखनी का कमाल दिखाता रहा, मैं कुछ ऐसे ही विचारों और व्‍याख्‍याओं से आक्रांत रही। उस दौर की कहानी कभी फिर लिखूंगी विस्‍तार से, कि कैसे लोकल ट्रेन, सड़क, प्‍लेटफॉर्म, दुकान-मकान, ईस्‍ट-वेस्‍ट में दिखने वाली हर लड़की से मैं अपनी तुलना करने लगती थी - क्‍या मैं ऐसी हूं, या कि वैसी, या उस नारंगी सूट वाली लड़की के जैसी। क्‍या मैं खिड़की के पास बैठी उस सांवली लड़की से भी गई-गुजरी हूं। सड़क पर दिखने वाली मोटी लड़कियों की बारीक पड़ताल करते हुए अपने मोटापे से उनकी तुलना करती, मैं इतनी मोटी हूं, नहीं, इससे थोड़ी कम, या कि उससे थोड़ी ज्‍यादा। मैं भैंसा हो गई हूं, मोटी-बेढब। सड़क पर लड़कियों के सूट का पैटर्न देखकर सोचती, ऐसा कम चौड़ाई वाला कुर्ता और चूडीदार शलवार मैं भी सिलवाऊंगी। ऐसे सूट से स्‍मार्टनेस आती है और शरीर की चौड़ाई भी कम पता चलती है। बहुत जरूरी हो गया है कि मैं अपने कपडों का स्‍टाइल बदलूं। और इस तरह के ख्‍यालों से एकाएक मैं काफी गंभीर हो जाती। जीवन में अभी बहुत काम करना है, बहुत बड़े-बड़े किले बाकी हैं, फतह करने को। बहरहाल, ये वाली कहानी फिर कभी।फिलहाल बात हो रही थी, सुंदरता के कीड़े की। आंख उठाकर देखूं तो पाती हूं, मेरे आसपास की दुनिया की हर लड़की को किसी-न-किसी रूप में सुंदरता के कीड़े ने काट खाया है। किसी को ज्‍यादा चांपा तो किसी को कम, किसी को अतिरिक्‍त आत्‍मविश्‍वास से भर दिया, तो किसी को येलम्‍मा की तरह सहारा मरुस्‍थल बना दिया। जो भी हो, लेकिन बख्‍शा तो किसी को नहीं। केसी लॉ कॉलेज की अविवाहित प्रिंसिपल बड़ी कुरूप थीं। पढ़ी-लिखी, नौकरीपेशा, लेकिन बेचारी रूप से मात खा गईं। किसी युवक का दिल उन पर कभी आया नहीं। 45 की उमर पार कर सठिया गई थीं और हर समय चिल्‍ल-पों मचाए रहती थीं। सुंदरता के कीड़े ने उनको भी नहीं छोड़ा था।वैसे पूरे संसार की तो मुझे खबर नहीं, लेकिन इलाहाबाद-बनारस-प्रतापगढ़ से लेकर मुंबई-पटना-कलकत्‍ता तक, जितना भी मैं देख पाती हूं, जिन भी स्त्रियों के रूप-रंग में ज्‍यादा डिफेक्‍ट था, मैंने पाया कि 45 के बाद वो सब सठिया जाती हैं। एकदम रूखी-कठोर, पत्‍थर की अभेद्य चट्टान। कोई अंतर्मुखी हो जाता है तो कोई बात-बात पर गालियों की बरसात करता रहता है। जबकि सुंदर औरतें 50 के बाद भी अपने सुर की मिठास बनाए रख पाती हैं। पतिगण तब भी उनकी आशिकी में दीवाने होते होंगे।टाइम्‍स ऑफ इंडिया की लॉबी में बैठे फेमिना और फिल्‍म फेयर में काम करने वाली गोरी-लंबी और स्‍मूथ हाथ-पैरों वाली लड़कियों को गुजरते देख उनकी चाल का आत्‍मविश्‍वास मुझे ईर्ष्‍या से भर देता था, जबकि सांवली-साधारण लड़कियां चुपचाप सीधा-सा मुंह लिए गुजर जाती थीं। सीएनबीसी की खूबसूरत बालाएं अपनी अदाओं के तीर छोड़तीं और लड़कों के साथ-साथ सांवली-साधारण लड़कियां भी धराशायी हो जातीं। लेकिन इसके परिणाम में लड़के जहां उनके आसपास मंडराने की कोशिश करते थे, वहीं बेचारी लड़कियां उन बालाओं से एक निश्चित दूरी बनाए रहतीं और अपने जैसी लड़कियों के समाज में ही उठती-बैठतीं। सबको अपनी औकात पता होती थी और वो सीमा-रेखा भी, जो उन्‍हें लांघनी नहीं थी।

23 comments:

AZADI BACHAO said...

Manisha
I am siraj kesar from azadi bachao andolan.
pls siend me your e mailid.

Rising Rahul said...

to blogging ke keede ne aapko bhi kaat hi liya . ham logo ka aashcharya karne ka samay khatam hua. swaagat hai aapka blog jagat me " fir se" aur "alag se bhi "

chilkaur said...

दिल्ली में आग राग का गायन
इन दिनों साहित्य की तथाकथित राजधानी दिल्ली में आग राग का गायन हो रहा है. मैंने गायक महोदय से जिज्ञासा की कि भई यह आग राग क्या है? तो काशी गुरु से दीक्षा ले चुके गायक जी ने कहा कि जिसको सुनकर झांट में आग लग जाए उसको आग राग कहते हैं. उनकी इस व्याख्या और इस नए राग को सुनकर अपन तो निहाल हो गये. फिर उन्होंने कहा कि बालक एक बात ध्यान से सुन लो कि इन दिनों दिल्ली में ऐसे-ऐसे संपादकाचार्य बंगाली बाजार से आए हैं जो मूतते कम हैं और हिलाते ज्यादा हैं. जब हिलाने से भी जी नहीं भरता तो अपने रात के साथी पालक पुत्रों को चाटते हैं, फुचकारते हैं. फटे में डालने की ताकत तो नहीं बची इसीलिए काने लिलीपुटियनों की मदद से लोगों से बूढ़ी गायों को गाभिन करने की कोशिश में हलकान हुए जा रहे हैं. शेष खबर लाने के लिए नारद जी जा रहे हैं.

अभय तिवारी said...

स्वागत है मनीषा.. अब लगातार लिखिये.. शुभकामनाएं

पुष्पेंद्र पुरी said...

स्वागत है आपका

Pushpa Tripathi said...

Manisha ji,

aapki lekhni mein kamal ki marmikta hai jo barbas hi sochne ko majboor karti hai.mohalla mein aapke sabhi lekh padhe,bahut achha laga.

Unknown said...

जिस बेबाकी से आपने वर्तमान समय के सौंदर्य मानदंडों पर अपनी लेखनी चलाई है वह पूरी तरह सार्थक है। स्वागत है आपका।

Batangad said...

मनीषा बढ़िया लिखा है। वैसे हमारे सीएनबीसी में अनुराधा सेनगुप्ता जैसी सांवली महिलाओं के आगे चिकनी-चुपड़ी लड़कियां भी पानी भरती हैं।

स्वास्तिक माथुर said...

Sure,

अवाम said...

aaj kal sundarta ke kide ne sabhi ko kat khaya hai is bat se nishchit rup se inkar nhi kia ja sakta hai. par yahan ladkiyon ko khud sochane ki jarurat hai ki jo wo unhi ke sath rhe ya dosti banaye jo unko usi rup me pasand kare jaisi ki wo hai or jahan tak mujhe lagta hai ki is tarah ke doston ki shayad kami nahi hai bas khojane ki jarurat hai..

Pratibha Katiyar said...

Manisha ji,

Main ek manisha ko janti hoon jinhone simon aur alic swejar dh stri muddon par batcheet par aadharit kitab ka anuvaad kiya hai. Stri ke paas khone ke liye kuch nahin hai...kya aap vahi hain.

Sanjay Grover said...

अगर औरत एक विशेष नाप को मापदंड मानकर संुंदर कहलाती है और फलस्वरूप देश के दूरदराज गांवों, कस्बों, शहरों की लड़कियां हीनभाव से ग्रस्त हो जाती हैं तो इसमें नया क्या है ? साधारण पुरुषों के साथ तो यह व्यवहार हम सालों से कर रहे हैं। अभिनय शून्य और चेहरे से अति साधारण सुनील शेट्टी, जो सिर्फ शरीर के बल पर हीरो बनते हैं और लोकप्रिय हो जाते हैं, तो क्या साधारण शरीर वाले युवक यह देखकर हीनभाव से ग्रस्त न हो जाते होंगे। अजय देवगन, संजय दत्त, सनी देओल, अक्षय कुमार आखिर कैसे टिके हुए हैं फिल्मों में। साधारण आदमी की तो बात अलग, दिलीप कुमार या आमिर खान सरीखे अभिनेता भी आगे चलकर खुद को हीन महसूस कर सकते हैं, अगर अभिनय शून्यों की फिल्में ऐसे ही हिट होती गई। हरिहरन जैसे कला संपन्न शास्त्रीय गायक को भी आज चुटिया बनाकर गाते हुए ‘माल’ की तरह दिखना पड़ रहा है।
6 दिसम्बर 1996 को अमरउजाला, रुपायन में प्रकाशित, मेरे एक लेख का एक अंश

Anita said...

बहुत ही प्यारा लिखा है आप ने!!

Unknown said...

Why dont you write bmore on this blog?

Unknown said...

I am reading your comments on PRGATISHEELTA.... I think for fifth time. So dont TARSAO your readers.

Pramendra Pratap Singh said...

क्षमा कीजिएगा,

आज कल ब्‍लागिंग में दखल कम है, पहचाने मे भूल हुई, अब आपकी बेदखल डायरी नही भूल पायेगी।

ruchi said...

hi mai tumhari boht badi fan hu .. mai tumhare article kadambari me regularly padhti hu .. mai dp me tumhari senior thi ek saal ...

Manoj Bharti said...

अहा जिंदगी में बेदखल की डायरी ब्लॉग के बारे में पढ़ा और यूँ आज इस ब्लॉग तक पहुँच गया । लेकिन राजकिशोर जी ने लिखा है कि हॉल ही में अपने ब्लॉग पर मेरी जिंदगी में किताबे इस विषय पर आपने लिखा है । लेकिन इस बलॉग पर तो एक ही पोस्ट हुई है और वह भी मई 2007 में । क्या मैं सही ब्लॉग पर हूँ । हालांकि आज ही वाणी प्रकाशन की मासिक पत्रिका में इसी विषय पर आपका आलेख देखा । लेकिन राजकिशोर जी द्वारा उद्धृत अहा जिंदगी पत्रिका की वे लइने उसमें भी नहीं मिली ।

कृपया अपना सही अता पता बता दीजिए । ताकि हम आपके लेखन और आपके व्यक्तित्व के बारे में ओर अधिक जान सकें ।

शब्द यात्रा की पथिक said...

aapka lekh pada bahut achchha he ye bhi pataa chala ki aap abhi indore men hi hai.me bhi indore nivasi hi hun. ek umeed jag rahi he man men ki agar aap se mulaakat ho jaae to mujh jesi nai bloger ko kuchh sikhane ko milega .aapka ID mujhe bhej de to shayad kabhi aapki meharbaani se milanaa ho sake or hamara bhi uddhar ho jai.

Bhoopendra pandey said...

एक डायरी जिसके बारे में काफी सुना था ,बेदखल की डायरी . आज देख लिया , बहुत बेबाकी से लिखती है आप, बहुत अच्छा लिखा है आपने ,... अब तो बेदखल की डायरी में दखलंदाजी करते ही रहेंगे

कथाकार said...

manisha ji

aapka lekhan aaur behtar hota jaa raha hei dinON din. badhai.
mujhe lagaa ki baap abhee bhee bnhopal meiNhee heiN. yahaaN aaya to socha salaam karta chalooN. lekin aapka profile bata rahaa hai ki aap indore meiNhieN.
kaisee heiN. sab theeK?
suraj

BS Pabla said...

कितना भटकना पड़ा इस पोस्ट के लिए :-(

तब जा कर इस ब्लॉग की यह इकलौती पोस्ट मिली

Anonymous said...

शुभकामनाएं